इंसानी तारीख में एक वक़्त था जब मर्दो को कायनात का मरकज समझा जाता था जबकि औरतो को इंसानी और समाजी हकूक के साथ भी कमतर माना जाता था और जो मर्दो के लिए यह महज़ जिस्मानी ताल्लुक़ और उनकी फरमाबरदारी का जरिया मानी जाती रही इस मंज़र में 1400 साल पहले बदलाव आया जब इस्लाम अरब की सरजमीं में दाखिल हुआ।
शुरुआत के दिनों में इस्लाम ने सबसे पहले लोगो के उन हकूक को बराबर करने का काम किया जिसकी वजह से लोगो को एक दूसरे से कमतर माना जाता था
मुआशरे में मुख्तलिफ फिरको के दरमियान इस्लाम ने औरतो के हकूक को तरजीह दी। इस्लाम ने बताया की मुआशरे के आगे बढ़ने के लिए जरूरी है की औरतो को एक बराबर इदारा समझा जाये, उनकी हैसियत को आवाम का एक एहम और लाजमी हिस्सा क़रार दिया जाये और उनको समाज में मर्दो के तरह इज़्ज़त दी जाये।
इस्लाम से पहले ख़वातीन:
इस्लाम से पहले सारी दुनिया में ख़वातीन को कमतर समझा जाता रहा बल्कि मगरिबी औरतो को बुराई की अलामत समझा जाता था और उनको बुराई की जड़ कहा गया। जबकि दूसरी तरफ अरबी कबाइल में लड़कियों का पैदा होना ही शर्मनाक माना जाता था और जिलत और रुस्वाई से बचने के लिए लोग अपनी छोटी छोटी बेटियों को जिन्दा ही दफना दिया करते थे या फिर उनके साथ बत्तर से बत्तर सुलूक होता उन्हें घर में ही गुलाम की जिन्दगी बसर करनी पढ़ती और अपनी जिन्दगी से जुडी किसी भी बात पर उनका कोई हक़ न था।
इस्लाम आने के बाद :
आमतौर पर इस्लाम आने के बाद सारी दुनिया में औरतो के हक़ूक़ को लेकर तबदीली आयी । इस्लाम ने औरतो को
बराबरी का दर्जा दिया है और उनको समाज में इज़्ज़त दिलाने का काम किया है , उनकी हैसियत के मुताल्लिक उनके कामो को तरजीह दी है । ख़वातीन की बढ़ती हुई हैसियत का हवाला कुरान की इस आयात से मालूम होता है : अल्लाह फरमाता है
इस आयाह से मालूम हुआ की अल्लाह ने औरतो को मर्दो के बराबर दिया है और उनको कमतर न आंकने की हिदायत दी
सामाजिक किरदार :
सामाजिक सतह पर इस्लाम औरतो के मुख्तलिफ किरदारों को तस्लीम करता है और इस बात को यकीनी बनाता
है की मुआशरे में इनको बराबर इज़्ज़त और रुतबा हासिल हो । इस्लाम में ख्वातीन एक मााँ, बहन, इताअत
पसंद बेटी और ख्याल रखने वाली बीवी का किरदार अदा करती है । किरदार से मुताल्लिक इस्लाम में चन्द हदीस और अयाह पर ख्याल किया गया है।
माँ का किरदार:
मुआशरे के ताल्लुक से इस्लाम में माँ के किरदार को सबसे ज्यादा अहम् माना गया है एक माँ ही है जो अपनी
औलाद को बड़ा करती है खुद कितनी परेशानी से गुजरे ।
एक मर्तबा एक सहाबा ने रसूल अल्लाह से पुछा:
मेरे सबसे ज्यादा नजदीक कौन है?
फ़रमाया तुम्हारी माँ
पूछा उनके बाद
फ़रमाया तुम्हारी माँ
पूछा उनके बाद
फ़रमाया तुम्हारी माँ
पूछा उनके बाद
फ़रमाया तुम्हारी माँ
पूछा उनके बाद
फ़रमाया तुम्हारे वालिद
बूढ़े मााँ बाप के बाइस अल्लाह क़ुरान में फरमाता है: (17 :23)
बहन और बेटियां :
मुआशरे में ख़वातीन का दूसरा बड़ा और अहम् किरदार होता है एक बेटी और बहन का; इस्लाम इस बात की तजवीज करता है की इनको बराबर के हक़ूक़, इज़्ज़त, देखभाल और हिफाजत मिले। इस्लाम में बेटे और बेटियों में कोई फर्क नहीं है और इस बात पर गौर दिया गया है की वालिद दोनों के लिए एक बराबर तालीम का इंतेज़ाम करे और इसी तरह आपस में भाई और बहन एक दूसरे का एहतराम करे। अल्लाह फरमाता है
बीवी का किरदार:
एक बाइसे अहतराम जो किरदार औरत अदा करती है वह है एक बीवी का किरदार। इस्लाम पहला ऐसा दीन है जो बीवी के हक़ूक़ क़ो तरजीह देता है । बीवी के बारे में अल्लाह सुबहाना ताला क़ुरान में फरमाता है:
दीन में किरदार :
ख़वातीन दीन में मुआशरे के लिए एक मजबूत और पाक किरदार निभाती है। जैसा पहले बताया गया है इस्लाम से पहले ख़वातीन पर जुल्मो सितम होते रहे उनके हक़ूक़ छीने गए और उन्हें बदतरीन जिन्दगी जीने पर मजबूर किया गया। इस्लाम में ना सिर्फ उनको उनकी हक़ूक़ वापिस दिलाये बल्कि उनको समाज में बराबर का दर्जा दिलाया
अल्लाह क़ुरान में फरमाता है: (49:13)
निकाह के ताल्लुक़ से अहम् बातें :
हमेशा से इस्लाम को लेकर लोगो में यह ग़लतफ़हमी रही है की इस्लाम में मर्द औरतो पर ग़ालिब रहे है यानि की मर्दो को औरतो पर अहमियत हासिल है जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है, निकाह की बात करे तो ख़वातीन को बराबर के हक़ूक़ हासिल है लिहाज़ा ख़वातीन को उनकी मर्जी के खिलाफ किसी से शादी करने का अमल इस्लाम मे नहीं है। इस्लाम ने औरतो को खुद की रजामंदी से शादी की इजाज़त दी है।
दूसरी अहम् बात यह की मर्द और औरत दोनों रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए काम करते है और इस सिलसिले में मर्द औरतो का साथ दे :
अल्लाह क़ुरान में फरमाता है:
आखिर में औरत अपने हक़ूक़ को समझे जो इस्लाम ने उन्हें दिया है और इन हक़ूक़ की रौशनी में खुद की जिम्ममेदारियो क़ो समझकर सही तरीके से खुद आगे लेकर जाये।